अंबेडकर अस्पताल के मेडिसिन वार्ड में भर्ती 75 साल के मरीज राम कुमार कांकेर के रहने वाले हैं। उनका भरा पूरा परिवार बेटा-बहु-पोते हैं। वे सरकारी नौकरी करते थे, जहां 45 हजार की पेंशन आती है, लेकिन वह पैसा उनका बेटा रखता है। भाठागांव में वह कैसे आए नहीं.इसके बाद से वे अस्पताल में भर्ती थे।
इस दौरान उनके दो बेटे उन्हें ढूंढते रहे। निराश्रित गोरा की देखभाल अस्पताल के कर्मचारी कर रहे थे। करीब 6 महीने बाद उनके घर वाले उन्हें लेने आए। कर्मचारियों ने उनकी ट्रेन का टिकट, खाने का खर्च देकर घर भेजा।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के अंबेडकर अस्पताल के वॉर्ड बॉय भरत बुंदेल और उनकी टीम परिवार से बिछड़े या छोड़े गए निराश्रित बीमार मरीजों की देखभाल कर रही है।अंबेडकर अस्पताल में ऐसे 15 से 20 मरीज हैं, जिन्हें कोई देखने वाला नहीं है। किसी का परिवार ही नहीं है तो किसी का परिवार ही उन्हें यहां बेसहारा छोड़ गया है। अस्पताल की ड्यूटी खत्म होने के बाद कर्मचारियों की यह टीम उन मरीजों को नहलाने, उनके नाखून काटने, बालों को ट्रिम करने, उन्हें नए कपड़े पहनाने से लेकर डाइपर बदलने तक का काम करते हैं।वॉर्ड बॉय भरत बुंदेला और उनकी टीम की सेवा भावना देखकर अब अस्पताल के अन्य कर्मचारी भी इस सेवा अभियान से जुड़ते जा रहे हैं। ये लोग कपड़े और बाल बनाने के सामान, शैंपू, ट्रीमर आदि जरूरत की चीजें उपलब्ध कराते हैं। छत्तीसगढ़ के अलावा असम, झारखंड, उड़ीसा जैसे राज्यों के भी मरीज यहां भर्ती हैं, जिन्हें देखने सुनने वाला कोई नहीं है। अब यह कर्मचारी ही इनका परिवार है।
कुछ सेवा करते हैं, कुछ जरूरत का सामान देते हैं: अम्बेडकर अस्पताल के डीपी वार्ड में भर्ती निराश्रित अज्ञात एवं बेसहारा मरीजों का जिम्मा वार्ड बॉय भरत बुंदेल, मंगली दाई, दुलारी नेताम, संजू मिंज, दशरथ बेहरा, रवि बुंदेल और अश्वनी नायक उठाते हैं। शुभ्रा सिंह ठाकुर, अमर सेंद्रे, सुजाता, नीलिमा, दुर्गेश व जॉली भी अपनी ड्यूटी के बाद इन निराश्रित मरीजों की देखभाल करते हैं। अस्पताल के कई कर्मचारी शेविंग का सामान, साबुन, ट्रिमर तथा डाइपर उपलब्ध कराते हैं।भरत बताते हैं- कोरोना काल के बाद से कई ऐसे मरीज मिले जिन्हें न तो कोई मिलने आता था, न उनकी देखभाल करता था। ऐसे मरीजों को हमने डीपी (डिसेबल पीपुल) वार्ड में रखना शुरू किया। इनके लिए कपड़े जुटाए।
इनकी रोजमर्रा की चीजें लाने लगे। फिर कई लोग जुड़े और यह अभियान सा बन गया।नि:स्वार्थ सेवा के बदले जो सम्मान मिलता है वही अवार्ड हैभरत कहते हैं- उम्मीद रहती है कि इनके घर वाले कभी न कभी इन्हें ले जाएंगे, लेकिन ऐसा होता बहुत कम है। कोई आता भी है तो चुपके से मिलकर चला जाता है, लेकिन घर ले जाने का जिक्र कोई नहीं करता। यही वजह है कि हम लोगों ने इनके देख- रेख का जिम्मा उठाया है। फिर भी अभी कुछ महीनों में राज्य के अंदर 8 से 10 मरीज स्वस्थ होकर अपने घर चले गए हैं। कुछ संस्था भी इन मरीजों का पुनर्वास करती है। इस सेवा के बदले हमें जो सम्मान मिलता है, वही हमारे लिए सबसे बड़ा उपहार है।