धर्म-कला -संस्कृति

Bastar ki Ghotul Sanskriti Pratha kya hai, iske bare me jane :बस्तर की घोटुल संस्कृति प्रथा क्या है, इसके बारे में जाने….!

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ब्यूरो रिपोर्ट सत्येंद्र सिंह

बस्तर की घोटुल संस्कृति”प्रथा क्या है, इसके बारे में जाने….!

बस्तर की कुछ परम्पराएं तो आपको एक रहस्यमय संसार में पंहुचा देती हैं। मुरिया जनजातीय क्षेत्रों में होने वाली मड़ई मेलों में युवा पीढ़ी श्रृंगार किये हुए कतारों में चलती अथवा झुण्ड में खड़ी दिखाई दे तो यह निश्चित ही जान सकते है कि ये लोग उस क्षेत्र के घोटुल सदस्य है। माथे पर रंग-बिरंगी पोत माला या कोई कौड़ियों की माला से या फिर कोई शीशे से बनी कंघियों से अपनी केश का श्रृंगार किये हुए हो। इसी तरह युवकों की रंग-बिरंगी पगड़ियों, माला कौड़ी या कंघियों का श्रृंगार हुआ होता है। 

एक-दूसरे का हाथ पकड़े भीड़ में से कतार में गुजरते युवक-युवती अचानक मन को मोह लेते हैं। रात्रि में कोई दल कतारों में एक-दूसरे की कमर से लटके, कमर में घंटी व घुंघरू बांधे युवक, तो उनके सामने विभिन्न पोत माला से श्रृंगार की हुई युवतियां कतार में नृत्य करती व मिट्टी के बने मांदर को कमर में बांध कर बजाते युवक-दल, जिनका साथ देती है सजी-संवरी युवतियां अपने हाथों में मंजीरा लिए युवा दल किसी न किसी घोटुल के सदस्य होते हैं। 

घोटुल एक कुटिया को कहा जाता है जो गॉंव के बाहरी क्षेत्र में ऊँचे नींव पर बना होता है।  ग्रामवासियों द्वारा इसे घोटुल गुड़ी मंदिर से सम्बोधित किया जाता है।  कमरे के सामने सा दालान और मंडप होता है। बांस की बाड़ी या छोटी-छोटी लकड़ियों से अहाता बना होता है। अहाते के भीतर किसी वृक्ष की डाल पर जलाऊ लकड़ियां संजो कर रखी जाती है। अट्ठारवीं-उन्नीसवीं सदियों में इसे गोतुल गुड़ी कहा जाता था। जोकि धीरे-धीरे उच्चारण में गोतुल घोटुल में परिवर्तित हो गया। 

घोटुल प्रथा की शुरुआत बस्तर के भूभाग दंडकारण्य क्षेत्र में घोटुल संस्कृति आदि मानव को संयमित तथा व्यवस्थित रखने में सफल हुई है, जोकि संस्कृति कालांतर के परिवर्तन को नकारते हुए कभी सम्बंधित तो कभी संशोधित होती हुई मानव समाज को दिशा देती रहती है। दंडकारण्य में अपनी भावी पीढ़ियों के लोगों को रात्रि-काल में अलग आश्रम में रखने की प्रथा के आधार पर चल पड़ी। 

पूर्व सदियों में गाँव में एक ही परिवार के लोग रहा करते थे। घर की व्यवस्था सही न होने के कारण बच्चों को किशोरावस्था से ही घोटुल में भेज देते थे जो रात्रि में वहीं सोते थे और प्रातः अपने घर वापस हो जाते थे। यही क्रम विवाह पर्यन्त चलता था। गाँव में प्रत्येक गोंड जाति के परिवार के बच्चे को घोटुल जाना अनिवार्य है। यदि कोई नहीं भेजता या जाना नहीं चाहता, ऐसी दशा में जाति पंचायत की बैठक जिसे भूमकला कहा जाता है। इस में निर्णय लेकर उसका सामाजिक बहिष्कार तक किया जाता है। घोटुल में प्रवेश लेते ही घोटुल के सदस्य का नामकरण होता है। घोटुल के किसी सदस्य का विवाह हो जाता है तो उसका घोटुल नाम नए आने वाले सदस्य को दे दिया जाता है। इसके नियम कठोर होते है साथ ही घोटुल के सदस्यों के निगरानी के लिए पदाधिकारी भी होते है। घोटुल के सदस्यों को घोटुल नियमों की किसी तरह से अवहेलना करने पर दंडित भी किया जाता है। 

 

घोटुल के सदस्य गांवों के सामूहिक कार्यों, पर्व, सामाजिक कार्यक्रम में भाग लेना पड़ता  हैं। घोटुल संस्कृति से जुड़े आदिवासी जन अपने बच्चों का विवाह विधिवत करते हैं। युवक-युवती के विवाहोपरांत उनके माथे का श्रृंगार व तला कांसरा उतार दिया जाता है। ये तला कांसरा रंग-बिरंगे पोत की माला है जो कुँवारेवास्था तक बंधा जाता है।  इस श्रृंगार से घोटुल समुदाय के युवक-युवती को आसानी से पहचाना जा सकता है। 

एक गाँव से दूसरे गाँव के बीच भी घोटुल के सदस्यों का आपसी मेल-जोल समाज में एकता बनाये रखने में सहायक होता है।  यही एकता गाँव के सभी परिवारों को एक सूत्र में बांधे हुए हैं। 

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