रायपुर/बिलासपुर। राज्य गठन के 25 साल पूरे हो चुके हैं। छत्तीसगढ़ से साल 2025 के जनवरी से जून तक लगभग 24,000 लोगों ने पलायन किया है, यानी हर महीने औसतन 4,000 लोग राज्य छोड़ रहे हैं। यह आंकड़ा सरकारी रिपोर्ट पर आधारित है, जिसमें बताया गया है कि ये लोग मुख्य रूप से रोजगार की तलाश में बाहर जाते हैं। राज्य सरकार ने पलायन को रोकने के लिए विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत 5,000 करोड़ रुपए भी खर्च किए हैं, फिर भी प्रदेश में बड़े पैमाने पर पलायन जारी है।
इसके अलावा, हर वर्ष करीब 10 लाख श्रमिक अन्य राज्यों में या राज्य के भीतर लंबे समय के लिए काम की तलाश में जाते हैं। 2011 की जनगणना में राज्य में कुल 88.88 लाख प्रवासी श्रमिक दर्ज किए गए थे, जिनमें स्थायी और अस्थायी पलायन दोनों शामिल थे — और यह संख्या अब और बढ़ी मानी जा रही है।
इन जिलों से सबसे अधिक पलायन
छत्तीसगढ़ में रोजगार की कमी व अन्य आर्थिक कारणों से लाखों लोग प्रतिवर्ष पलायन कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा पलायन जांजगीर-चांपा और महासमुंद जिलों से हो रहा है। इन जिलों में ग्रामीण मजदूरों और आदिवासी समुदाय के लोग रोजगार की तलाश में बाहर जाते हैं। बस्तर क्षेत्र के जिलों जैसे दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा, नारायणपुर और कांकेर में भी आदिवासी पलायन की दर काफी ज्यादा है, खासकर स्थायी और मौसमी दोनों प्रकार के पलायन में।
इन क्षेत्रों के लोग मुख्य रूप से खनन क्षेत्र, निर्माण कार्य, ईंट भट्ठों, औद्योगिक मजदूरी, और कृषि मजदूरी के लिए मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, ओडिशा और गुजरात जैसे अन्य राज्यों में जाते हैं।

जांजगीर-चांपा : यहां सरकारी नौकरियां, व्यापार, क्षेत्रीय उद्योग, बैंकिंग, और लोक सेवा विभागों में रोजगार के अवसर उपलब्ध हैं। सरकारी नौकरी के लिए यहां कई रिक्तियां निकलती रहती हैं जैसे जूनियर असिस्टेंट, नर्सिंग ऑफिसर, शिक्षक, तकनीकी सहायक आदि। छोटे-बड़े व्यवसाय और कृषि भी रोजगार का स्रोत हैं, लेकिन औद्योगिक विकास सीमित है।
महासमुंद : यहां खेती के अलावा छोटे-छोटे उद्योग, निर्माण कार्य, सेवा क्षेत्र जैसे ग्राहक सेवा, बिक्री प्रबंधन आदि के क्षेत्र में नौकरी मिलती है। यहां सुरक्षित और औद्योगिक रोजगार अवसर सीमित हैं, जिससे युवा पलायन करते हैं।
दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा, नारायणपुर : ये जिले आदिवासी और माओवादी प्रभावित क्षेत्र हैं जहां कृषि मुख्य रोजगार का साधन है। खेती प्रायः वर्षा पर निर्भर है और उत्पादन कम है। वन उपज जैसे महुआ, तेंदू पत्ता, लकड़ी संग्रहण से भी लोगों का जीवन चलता है। औद्योगिक या व्यवस्थित रोजगार के सीमित अवसर हैं, इसलिए लोग पलायन करते हैं।
पलायन क्यों बढ़ रहा है? — प्रमुख कारण
रोजगार की कमी
सबसे बड़ा कारण रोजगार न मिलना है। ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में औद्योगिक विकास कम होने से रोजगार के अवसर सीमित हैं, जिससे लोग बेहतर नौकरी की तलाश में बाहर जाना पसंद करते हैं।
कृषि संकट
सिंचाई की कमी, एक फसल की खेती (सिंगल क्रॉपिंग), और कृषि पर निर्भरता के कारण खेती में आय कम होना भी पलायन का बड़ा कारण है। खेतिहर मजदूर बेहतर वेतन की तलाश में पलायन करते हैं।
गरीबी और आर्थिक अस्थिरता
आर्थिक तंगी, कर्ज के बोझ, और बेहतर जीवन यापन के लिए जरूरत वाले संसाधनों की अनुपलब्धता भी लोगों को पलायन के लिए मजबूर करती है।
शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव
गांवों में बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित होने से भी लोग बेहतर जीवन की तलाश में पलायन करते हैं।
माओवादी हिंसा और विस्थापन
माओवादी प्रभावित क्षेत्र जैसे बस्तर के जिलों में सुरक्षा के कारण भी आदिवासी पलायन करते हैं, क्योंकि उन्हें अपने क्षेत्रों से विस्थापित होना पड़ता है।
शादी और सामाजिक कारण
महिलाओं के पलायन के मुख्य कारण शादी होते हैं, जबकि पुरुष मुख्यतः रोजगार के लिए पलायन करते हैं।
दलाली और शोषण
मजदूर दलालों का सक्रिय होना, जो गरीबों को बाहर भेजने के लिए प्रलोभन और शोषण करते हैं, पलायन को बढ़ावा देता है
सरकार ने 5,000 करोड़ रुपये किए खर्च — क्या हुआ फायदा?
राज्य सरकार ने पलायन रोकने वाली योजनाओं पर 5000 करोड़ रुपये खर्च किए हैं।
मुख्य योजनाएँ :
- मनरेगा – ग्रामीण क्षेत्रों में 150 दिन का रोजगार
- अटल श्रम सशक्तिकरण योजना – श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा
- प्रधानमंत्री आवास योजना – ग्रामीण परिवारों के लिए आवास
- महतारी वंदन योजना – महिलाओं को आर्थिक सहायता
- माओवादी मुक्त पंचायत योजना – बस्तर में विकास कार्य
- खाद्यान्न सहायता योजना
- सड़क व पुल निर्माण
सरकार ने 2025 में पलायन रोकने के लिए लगभग 5000 करोड़ रुपये भी खर्च किए हैं, लेकिन पलायन की समस्या पूरी तरह खत्म नहीं हो पाई है। मनरेगा के तहत मजदूरी बढ़ाई गई है और श्रम विभाग के माध्यम से योजनाओं को मजदूर वर्ग तक पहुंचाने के प्रयास जारी हैं।
छत्तीसगढ़ में पलायन रोकने के लिए शुरू की गई सरकारी योजनाओं के कई सकारात्मक पक्ष हैं, जैसे रोजगार सृजन, सामाजिक सुरक्षा, और बुनियादी सेवाओं का विस्तार। लेकिन इन योजनाओं के कुछ नकारात्मक पक्ष भी हैं, जिन पर ध्यान देना आवश्यक है :-
समस्याओं का दूसरा चेहरा — नकारात्मक पक्ष
समानांतर योजनाओं का जाल
कई योजनाएं एक ही उद्देश्य के लिए अलग-अलग विभागों से चलाई जाती हैं, जिससे संसाधनों का क्षरण होता है और योजना का प्रभाव कम हो सकता है।
जमीन और संसाधनों का दोहन
कुछ योजनाओं में बड़े पैमाने पर सरकारी जमीन का प्रयोग, खनिज खदानों और प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है, जिससे स्थानीय पर्यावरण और समुदाय दोनों प्रभावित हो सकते हैं।
आर्थिक अनियमितताएं और भ्रष्ट्राचार
आवेदन प्रक्रिया में भ्रष्टाचार, फर्जीवाड़ा और अनियमितता की बीमारी ने योजनाओं की निष्पक्षता को कमजोर किया है। इससे मूल लाभार्थियों को मदद न मिल पाने की स्थिति भी बनी है।
सामाजिक असमानता और भेदभाव
कुछ योजनाओं का लाभ मुख्य रूप से उपरी वर्ग या राजनीतिक रूप से समर्थ लोगों तक ही सीमित हो गया है, जिससे गरीब और दिहाडी मजदूर जैसे समाज के वंचित वर्ग इससे वंचित रह जाते हैं।
स्थायी रूप से हल न होना
कई योजनाएं अस्थायी राहत प्रदान करती हैं, लेकिन लंबी अवधि में स्थायी समाधान की कमी के कारण समस्याएं जस की तस बनी रहती हैं। केवल आर्थिक सहारा ही नहीं, बल्कि मूलभूत सुधार भी जरूरी हैं।
व्यावहारिकता और कार्यान्वयन की समस्याएँ
योजनाओं का कार्यान्वयन अक्सर भ्रष्टाचार, अदूरदर्शिता, राजनीति और जमीनी हकीकत के अभाव के कारण ठीक से नहीं हो पाता है, जिससे लाभार्थियों को योजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिल पाता।
आर्थिक और सामाजिक असर
- राज्य से श्रम शक्ति का बाहर जाना, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था कमजोर
- परिवारों का बिखराव, बच्चों की पढ़ाई प्रभावित
- महिलाओं पर आर्थिक और सामाजिक दबाव
- कई मामलों में मजदूरों का शोषण, दुर्घटना और असुरक्षित कामकाज
“पलायन सिर्फ आर्थिक नहीं, सामाजिक संकट भी” — विशेषज्ञों की राय
श्रम एवं सामाजिक शोधकर्ताओं के अनुसार:
“अगर स्थानीय स्तर पर उद्योग, कौशल प्रशिक्षण और कृषि-आधारित प्रसंस्करण केंद्र नहीं स्थापित किए गए, तो पलायन आगे और बढ़ेगा। योजनाएँ तभी सफल होंगी, जब ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार आय का स्रोत बने।”
छत्तीसगढ़ में पलायन सिर्फ गरीबी की समस्या नहीं, बल्कि रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़ा एक जटिल सामाजिक-आर्थिक विषय है।
जब तक राज्य में स्थानीय रोजगार और उद्योगों का स्थायी विकास नहीं होगा, तब तक—
पलायन जारी रहेगा, योजनाएँ खर्च होती रहेंगी और परिवार बिछड़ते रहेंगे।

