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610 साल पुरानी परंपरा निभाई:बेल के कांटों से बने झूले पर झूलते हुए काछन देवी ने दीं दशहरा मनाने की अनुमति

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ब्यूरो रिपोर्ट चांपा मरकाम

610 साल पुरानी परंपरा निभाई:बेल के कांटों से बने झूले पर झूलते हुए काछन देवी ने दीं दशहरा मनाने की अनुमति
बस्तर दशहरा के लिए काछनगादी की रस्म अदा की गई 75 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा की सबसे महत्वपूर्ण काछनगादी की रस्म रविवार शाम पूरी की गई। पनका जाति की 6 साल की कन्या पीहू पर काछन देवी सवार हुईं। बेल के कांटों से बने झूले में झूल देवी ने बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव को दशहरा मनाने और रथ परिक्रमा की अनुमति दीं। पर्व मनाने माता से अनुमति लेने की यह परंपरा पिछले 610 सालों से चली आ रही है। माता से अनुमति मिलने के बाद अब दशहरा की अन्य रस्में भी निभाने का सिलसिला शुरू हो जाएगा।



इसी कांटों के झूले में झूल देवी ने दी अनुमति।

जगदलपुर के भंगाराम चौक में स्थित काछनगुड़ी में यह परंपरा निभाई गई है। इस गुड़ी में पहली कक्षा में पढ़ने वाली पनका जाति की 6 साल की पीहू श्रीवास्तव करीब 9 दिनों तक देवी की अराधना की। इस दौरान उसने उपवास भी रखा था। पीहू पहली बार इस परंपरा को निभाई है। इससे पहले पनका जाति की ही अनुराधा ने करीब 5 से 6 सालों तक इस परंपरा को निभाया। 25 सितंबर को मंदिर के पुजारी समेत समिति के लोगों ने पूरे विधि-विधान से देवी की पूजा-अर्चना की।



रस्म निभाने के बाद झूले से उतारते लोग।

22 पीढ़ियों से इसी जाति की कन्या निभा रहीं रस्म

बस्तर दशहरा में सिर्फ झारउमर और बेड़ाउमर गांव के ग्रामीणों को ही रथ निर्माण करने की अनुमति है, ठीक इसी तरह पिछले 22 सालों से पनका जाति की ही लड़की काछनगादी की रस्म पूरी कर रही हैं। बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने कहा कि, माटी पुजारी होने के नाते मैं इस रस्म को पूरी करने के लिए उपस्थित होता हूं। दशहरा मनाने माता से अनुमति मांगता हूं। माता आशीर्वाद देतीं हैं कि बस्तर दशहरा बिना किसी बाधा के हो।



पूजा करते पुजारी।

काछन देवी को रण की देवी भी कहते हैं

कुछ जानकारों के अनुसार, बस्तर महाराजा दलपत देव ने काछनगुड़ी का जीर्णोद्धार करवाया था। करीब 610 साल से यह परंपरा इसी गुड़ी में संपन्न हो रही है। काछनदेवी को रण की देवी भी कहा जाता है। पनका जाति की महिलाएं धनकुल वादन के साथ गीत भी गाती हैं। हर साल बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव काछनगुड़ी पहुंचते हैं। फिर, देवी से दशहरा मनाने की अनुमति लेते हैं। लंबे समय से ये परंपरा चली आ रही है। ऐसी मान्यता है कि देवी अनुमति नहीं देंगीं तो दशहरा नहीं मनाया जा सकेगा।

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