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श्राद्ध से पितृ ही नहीं अपितु समस्त देवों से लेकर वनस्पतियां तक तृप्त होती हैं:- शेषाचार्य जी महाराज

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श्राद्ध से पितृ ही नहीं अपितु समस्त देवों से लेकर वनस्पतियां तक तृप्त होती हैं:- शेषाचार्य जी महाराज

महाभारत के अनुशासन पर्व में उल्लेख मिलता है कि सर्वप्रथम श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि को महातपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था। इस तरह पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया।

समय के साथ इसे अन्य ऋषि-मुनियों ने अपनाया। और धीरे-धीरे यह चार वर्णों यानी ब्राह्मण, क्षत्रिए, वैश्य और शूद्र लोग भी श्राद्ध परंपरा का निर्वाहन करने लगे।

तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है।

हिन्दू धर्म में मान्यता है कि शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी आत्मा अजर-अमर रहती है। वह अपने कार्यों के भोग भोगने के लिए नाना प्रकार की योनियों में विचरण करती है। शास्त्रों में मृत्योपरांत मनुष्य की अवस्था भेद से उसके कल्याण के लिए समय-समय पर किए जाने वाले कृत्यों का निरूपण हुआ है।

सामान्यत: जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते हैं। हिन्दू मान्यता के अनुसार पुण्य का फल स्वर्ग और पाप का फल नर्क होता है। नर्क में जीवात्मा को बहुत यातनाएं भोगनी पड़ती हैं। पुण्यात्मा मनुष्य योनि तथा देवयोनि को प्राप्त करती है।

इन योनियों के बीच एक योनि और होती है वह है प्रेत योनि। वायु रूप में यह जीवात्मा मनुष्य का मन:शरीर है, जो अपने मोह या द्वेष के कारण इस पृथ्वी पर रहता है। पितृ योनि प्रेत योनि से ऊपर है तथा पितृलोक में रहती है।

भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों तक का समय सोलह श्राद्ध या श्राद्ध पक्ष कहलाता है। शास्त्रों में देवकार्यों से पूर्व पितृ कार्य करने का निर्देश दिया गया है। श्राद्ध से केवल पितृ ही तृप्त नहीं होते अपितु समस्त देवों से लेकर वनस्पतियां तक तृप्त होती हैं।

श्राद्ध करने वाले का सांसारिक जीवन सुखमय बनता है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसी मान्यता है कि श्राद्ध न करने से पितृ क्षुधा से त्रस्त होकर अपने सगे-संबंधियों को कष्ट और शाप देते हैं। अपने कर्मों के अनुसार जीव अलग-अलग योनियों में भोग भोगते हैं, जहां मंत्रों द्वारा संकल्पित हव्य-कव्य को पितर प्राप्त कर लेते हैं।

श्राद्ध की साधारणत: दो प्रक्रियाएं हैं-

एक पिंडदान और दूसरी ब्राह्मण भोजन। ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को तथा पितर कव्य को खाते हैं। पितर स्मरण मात्र से ही श्राद्ध प्रदेश में आते हैं तथा भोजनादि प्राप्त कर तृप्त होते हैं।

एकाधिक पुत्र हों और वे अलग-अलग रहते हो तो उन सभी को श्राद्ध करना चाहिए। ब्राह्मण भोजन के साथ पंचबलि कर्म भी होता है, जिसका विशेष महत्व है यूं तो एक आम मान्यता है कि जिस भी तिथि को किसी महिला या पुरुष का निधन हुआ हो उसी तिथि को संबंधित व्यक्ति का श्राद्ध किया जाता है, लेकिन आपकी जानकारी के लिए हम कुछ खास बातें यहां बता रहे हैं…

सौभाग्यवती स्त्री का श्राद्ध नवमी के दिन किया जाता है।

यदि कोई व्यक्ति संन्यासी है तो उसका श्राद्ध द्वादशी के दिन किया जाता है।

शस्त्राघात या किसी अन्य दुर्घटना में मारे गए व्यक्ति का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।

।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।…ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।

पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारंबार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।

पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है।

‘हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।’- यजुर्वेद

इन विशेष बातों का रखें ध्यान*

– हवन के समय पितरों के निमित्त पिंड दान दिया जाता है। मान्यता है कि इसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं कर सकते हैं। इसीलिए सर्वप्रथम पिता को, उनके बाद दादा को उसके बाद परदादा को पिंड देना चाहिए।

– तर्पण करते समय पिता-पितामह आदि के नाम का स्पष्ट उच्चारण करें।

– पहले अपने कुल के पितरों को जल से तृप्त करने के पश्चात मित्रों और संबंधियों को जलांजलि देनी चाहिए।

श्राद्ध में है तीन पिंडों का विधान*

पहला पिंड: जल में अर्पित करें। यह चंद्रमा को तृप्त करता है और चंद्रमा स्वयं देवता तथा पितरों को संतुष्ट करते हैं।

दूसरा पिंड: गुरुजनों की आज्ञा से जो दूसरा पिंड पत्नी खाती है, उससे प्रसन्न होकर पितर संतान की कामना वाले पुरुष को संतान प्रदान करते हैं।

तीसरा पिंड: यह अग्नि में डाला जाता है, उससे तृप्त होकर पितर मनुष्य की संपूर्ण कामनाएं पूर्ण करते हैं।

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